हिन्दू राष्ट्र- क्यों आवश्यक

आज रामनवमी है लेकिन अनेक राज्यों में सरकारी छुट्टी नहीं है। कई राज्यों में सरकारी कार्यालयों में तो छुट्टी है, लेकिन बैंकों में छुट्टी नहीं है। जबकि गत दिनों गुड फ्राइडे पर पूरे देश में बैंकों सहित सभी सरकारी संस्थान एकमत से बंद थे।

रामनवमी क्या है इसे देश के पूरे 100% लोग जानते हैं और 80% मनाते भी हैं, उस दिन अवकाश नहीं। जबकि गुड फ्राइडे को क्या हुआ था इसे देश के 98% लोग न जानते हैं, न मानते हैं; फिर भी सब जगह छुट्टी।

यहाँ से 4000 किलोमीटर दूर पैग़म्बर मोहम्मद और ईसा मसीह जन्मे थे, इस ख़ुशी में देश भर में आज भी छुट्टी होती है जबकि एक को मानने वाले 17% हैं और दूसरे को मानने वाले तो मात्र 2% हैं; लेकिन इसी धरा पर जन्म लेने वाले भगवान राम, कृष्ण, हनुमान और गणेश के जन्मदिवस पर अनेक ‘सेक्युलर’ राज्यों में छुट्टी नहीं होती क्योंकि इनके जन्म पर कोई सेक्युलर ख़ुश क्यों होगा।

दिल्ली के बैंकों में इस वर्ष कुल 12 धार्मिक अवकाश हैं जिनमें से 3 हिन्दू त्यौहारों पर हैं, 2 ईसाई त्योहारों पर और 4 मुस्लिम त्योहारों पर ! ये विशेषाधिकार तो तब है, जबकि पिछले दस वर्षों से इन दोनों का ‘घोर उत्पीड़न’ हो रहा है। क्या विभाजन के समय इस तरह के सेक्युलरिज़्म की कल्पना की गयी थी?

कुछ राज्य रामनवमी, जन्माष्टमी, रक्षाबंधन आदि प्रमुख हिन्दू त्यौहार तो भूल गये; लेकिन 4 मुस्लिम त्यौहार (ईद-उल-फ़ितर, बक़रीद, मोहर्रम और पैग़म्बर जन्मदिवस) एक भी राज्य नहीं भूला; अपितु कुछ राज्यों में तो बारावफात और जुमात-उल-विदा मिलाकर 6 तक कर दिया है।

तमिलनाडु का उदाहरण ले लीजिये। वहाँ की 88% जनसंख्या हिन्दू है और शेष 6-6% मुस्लिम व ईसाई। वहाँ की सरकार को ईसाई नववर्ष, गुड फ्राइडे, तेलुगु नववर्ष (जी हाँ, तमिलनाडु में तेलुगु नववर्ष), ईद, मजदूर दिवस, बकरीद, मुहर्रम, पैग़म्बर का जन्म दिवस और क्रिसमस- सब याद हैं; केवल रामनवमी भूल गयी। अब इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि राम ने अपने वनवास का अंतिम वर्ष तमिलनाडु में बिताया था, वहाँ शिवलिंग (रामेश्वरम) की स्थापना की थी, वहीं पर सेतु बनाया था और लंका पर चढ़ाई की थी। राम सेक्युलरिज़्म से ऊपर थोड़े ही हैं।

क्या ऐसा सेक्युलरिज़्म देश के बहुसंख्यक 80% मूल निवासियों के स्वाभिमान पर तमाचा नहीं है जिन्होंने इस मिटटी को अपने रक्त से सींचा है? सेक्युलरिज़्म की इस बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए हिन्दू राष्ट्र आवश्यक है जो केवल भाजपा ही कर सकती है।

–महेश बंसल ‘भारतीय’

भारत-विघटन के लिए जिम्मेदार कौन?

अतीत में बार-बार हुए भारत विघटन के लिए हम कभी मुग़लों को, कभी अंग्रेजों को तो कभी पाक-चीन को दोषी ठहराते हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि विघटन की प्रवृत्ति हम लोगों के रक्त में ही व्याप्त है, हम सब के अंदर है।

  1. इसीलिए तो अपने ही देश के पूर्वोत्तर राज्यों से आने वाले लोग यहाँ चाइनीज़ कहलाते हैं।
  2. दार्जीलिंग के गोरखा हमारे अपने ही देश में नेपाली कहे जाते हैं।
  3. कोई भी बांग्ला बोलता मिला और झट से बांग्लादेशी बना दिया।
    आज तक ऐसा एक भी व्यक्ति मैंने नहीं देखा जिसने किसी नेपाली को मणिपुरी कहा हो, लेकिन मणिपुरी को नेपाली या चीनी कहने वाले हजारों देखे हैं।
  4. कश्मीर के लोग अपने ही देश में पठान (अफ़गानी) और लद्दाखी लोग तिब्बती कह दिए जाते हैं।
  5. देश के 5 दक्षिणी राज्यों में रहने वाले लोग कुछ इस तरह साउथ इंडियन हो गये जैसे ‘साउथ इंडिया’ कोई अलग देश हो। क्यों वे लोग शेष भारतीयों की तरह एक राज्य के तौर पर नहीं देखे जाते? बल्कि उन पाँच राज्यों की एक अलग ही केटेगरी बना दी गयी है- साउथ इंडिया। जब बिहार के निवासी को बिहारी और पंजाब के व्यक्ति को पंजाबी कहते हो, तो तमिलनाडु के लोगों को तमिल और कर्नाटक के निवासियों को कन्नड़ क्यों नहीं बोल सकते? ‘साउथ इंडियन’ कहकर क्या हम मानसिक रूप से देश के दो टुकड़े नहीं करते हैं- नॉर्थ इंडिया और साउथ इंडिया?

कुल मिलाकर देखें तो हमें अपने देश की थाती पर कभी गर्व ही नहीं होता। राष्ट्रवाद की भावना हमारे लोगों में कभी रही ही नहीं। इस मामले में हम पाकिस्तानियों से भी गये गुज़रे हैं। यदि पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों को पश्चिमी देशों में कोई इंडियन कह दे, तो वे पुरजोर विरोध करते हैं और गर्व से कहते हैं कि हम इंडियन नहीं हैं, हमारा अपना स्वतंत्र देश है। और हम अपने ही नागरिकों को विदेशी बताकर उनका उत्पीड़न करते हैं।

राष्ट्रवाद किसी शिक्षा या ज्ञान का मोहताज़ नहीं होता। वो तो जन्म से ही नसों में लहू बनकर दौड़ना चाहिए। शिवाजी की माता जीजाबाई ने कौनसी B.Ed. कर रखी थी जो उन्होंने शिवा जैसा सम्राट तैयार किया? अपने पुत्र की बलि देकर महाराणा उदयसिंह के प्राण बचाने वाली पन्नाधाय ने कौनसे शास्त्र पढ़ रखे थे?

सोचिये और लोगों को इस व्यवहार को बदलने के लिए प्रेरित कीजिये ताकि देश के आगे और टुकड़े न हों।

-महेश ‘भारतीय’
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लम्बा चलेगा यह महामारी का दौर

मेरी बात लिख कर रख लेना। इस देश से कोविड अगले 2 साल तक ख़त्म होने वाला नहीं।

इसके पीछे की वजह समझिये। पिछले 7 सालों में जो विपक्ष, मीडिया, बुद्धिजीवी, फिल्मकार, साहित्यकार, चीन, फोर्ड फाउंडेशन सब मिलकर भी मोदी को कमजोर नहीं कर पाये उन्हें इस महामारी में आशा की किरण दिखाई दे रही है। नहीं तो क्या कारण है कि जिस बीमारी पर हमने अच्छे से नियंत्रण पाया और फ़रवरी तक लगभग समाप्त हो गयी थी वो कुछ ही दिनों में इतनी भयंकर हो गयी जबकि प्रधानमंत्री चीख-चीख कर ‘दवाई भी, कड़ाई भी’ का सन्देश दे रहे थे। सरकार तो एक है लेकिन विपक्ष के सैंकड़ों चेहरे हैं जो हर दिन अपना-अपना अलग राग अलापते हैं। एक की बात मानो तो दूसरा हो-हल्ला करने लगता है। बेसिर पैर की मांगें रखना और न माने जाने पर जनता को भड़काना- ये एक साजिश का ही हिस्सा है।

साजिश के कुछ उदाहरण देखिये-
१. पिछली बार केंद्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाया तो विपक्षी कहते रहे राज्यों को अपने हिसाब से करने की छूट देनी थी। इस बार राज्यों को छूट दी तो कह रहे हैं केंद्र ने कोई योजना नहीं बनाई !
२. केंद्र ने स्वयं टीका ख़रीदकर राज्यों को दिया तो कहने लगे राज्यों को ख़रीदने की छूट मिले। जब राज्यों को छूट दे दी, तो उन्हें केंद्र ख़रीदकर दे।
३. महाराष्ट्र वाले वसूली गैंग के नेता कह रहे हैं हमें CoWin की जगह अपना app बनाने दिया जाये।
४. बिहार चुनाव में भाजपा ने चुनाव आयोग से रैलियों पर रोक की मांग की तो सब नाग एक सुर में कहने लगे रैलियों पर रोक से भाजपा को फ़ायदा होगा। अब बंगाल में भाजपा की रैलियों को दोष देना जबकि रैलियाँ तो सभी दलों ने की हैं।
५. चार महीनों से दिल्ली में हजारों की संख्या में बेमतलब जमे फ़र्ज़ी किसानों को समर्थन देना।
६. ऑक्सीजन को लेकर गलतबयानी करना और बेसिर पैर के आरोप लगाना।
७. PM Cares Fund से भेजे गए वेंटिलेटर्स और ऑक्सीजन प्लांट के लिए दिए गए पैसों का इस्तेमाल न करना।
८. टीके के बारे में लोगों में ग़लतफ़हमी फैलाना और टीका न लगवाने के लिए उकसाना।
९. कालाबाज़ारी, जमाख़ोरी और धोखाधड़ी के अधिकतर मामलों में विपक्ष से जुड़े लोगों का नाम आना।
ये लिस्ट बहुत लम्बी है।

अब साजिश का कारण समझिये। दूसरे कार्यकाल के पहले 9 माह में सरकार ने धारा 370, तीन तलाक़, CAA और राम मंदिर सहित जिस तरह धुआँधार काम किया वो गति अब पूरी तरह रूक गयी है। उस समय सरकार का रुख़ देखकर पूरे विपक्ष में हाहाकार मच गया था कि यदि सरकार इसी तरह जनभावना के अनुसार फैसले लेती रही तो अगले 20-30 सालों तक भाजपा को सत्ता से हटाना असंभव हो जायेगा। लेकिन पिछले सवा साल इस महामारी के कारण पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। देश की सारी मशीनरी सिर्फ़ कोविड से निपटने में लगी हुई है। कोई और महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हो पा रहा है। पहले से ही सुस्त अर्थव्यवस्था पर भी दोहरी मार पड़ी है। लोगों की आर्थिक स्थिति भी ख़राब हुई है। एक तरफ़ तो सरकार का वर्तमान कार्यकाल बर्बाद हो रहा है दूसरी तरफ़ महामारी के दौरान दुष्प्रचार करके सरकार के विरुद्ध असंतोष फैलाया जा रहा है ताकि अगली बार भाजपा के सत्ता में लौटने की सम्भावना भी कम हो जाये। यही तो विपक्ष के एजेंडे को सूट करता है। इस महामारी ने मरे हुए विपक्ष में जैसे फिर से प्राण डाल दिए हैं।

जनता ने भी इस बार अपने दायित्व का ठीक से निर्वहन नहीं किया और अनजाने में विपक्ष के एजेंडे का हिस्सा बन गए। ऐसा लगता है जैसे जनता की सुरक्षा करना सरकार की तो जिम्मेदारी है लेकिन जनता की अपने प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है। साथ ही देश में ऐसा वातावरण बना दिया गया है जैसे सरकार का मतलब सिर्फ़ केंद्र सरकार है और राज्यों की कोई जिम्मेदारी नहीं है।

इसलिए गैर-जिम्मेदार जनता और मक्कार विपक्ष के रहते अभी कोविड का भारत में दौर लम्बा चलेगा।

–महेश ‘भारतीय’
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अटल और निडर रहें राष्ट्रवादी

राष्ट्रवादी भाइयों-बहनों, मोदीजी के पीछे चट्टान की तरह खड़े रहो। कांग्रेसी, आपिये, वामी-कामी बड़े ही हरामी हैं। महामारी इन्हें मोदीजी को सत्ता से हटाने के अवसर के रूप में दिखाई दे रही है जिस प्रकार ट्रम्प को दुष्प्रचार करके हटाया गया।

इसलिए इन मक्कारों से बहस करते समय आँखों में आँखें डालकर तर्क करो। इनसे डरो नहीं और न ही रक्षात्मक होने की जरूरत है क्योंकि मोदीजी ने अब तक कुछ भी गलत नहीं किया है।

याद रखो आप जिस विचारधारा के साथ खड़े हो, वो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और सबसे ईमानदार विचारधारा है। 7 वर्षों में अभी तक सरकार के किसी मंत्री पर एक पैसे के भ्रष्टाचार के आरोप तक नहीं लगे हैं। ये गद्दार जानते हैं कि पार्टी की असली ताकत आप हैं इसलिए आपको पार्टी से दूर करने के लिए तरह-तरह से दुष्प्रचार किया जा रहा है।

पिछली बार जब लॉकडाउन लगाया गया तब जिन लोगों ने जी भरकर गालियाँ दी कि मोदी ने रोजगार छीन लिए आज वही लोग कोरोना से हुई मौतों के लिए मोदी को जिम्मेदार बता रहे हैं। अगर लॉकडाउन लगाये तो रोजगार जायेंगे और न लगाये तो जिंदगियाँ जायेंगी। एक तरफ़ तो समझौता करना ही पड़ेगा। यदि एक पिता की संतान हो, तो एक बात पर कायम क्यों नहीं रहते?

लोग मर रहे हैं तो मोदी जिम्मेदार नहीं हैं। लोग इसलिए मर रहे हैं क्योंकि वे सर पर कफ़न बांध कर बाहर निकल रहे हैं। लोगों ने ठान लिया है कि चाहे जियें या मरें, लेकिन सावधानी नहीं बरतेंगे। तो फिर मोदी कैसे बचाये?

बंगाल चुनाव प्रचार को लेकर मोदी पर दोष लगाया जा रहा है। क्या वहाँ भाजपा अकेली प्रचार कर रही है? क्या वहाँ की रज़िया सुल्ताना भीड़ इकट्ठा नहीं कर रही है? जिन्हें मोदी के प्रचार करने से मिर्ची लग रही है वो एकाध बार बंगाल जाकर वहाँ के हालात देखे। मैं हर 6-8 महीनों में बंगाल जाता रहता हूँ। पिछले लगातार 44 वर्षों के वामपंथी शासन ने वहाँ की तीन पीढ़ियों की ज़िंदगी तबाह कर दी है। बंगाल की लगभग 25-30% जनसंख्या कुपोषित है। वयस्क स्त्री-पुरुषों का वज़न 40-40 किलो भी नहीं है। लोगों का पेट और पीठ भूखे रहने के कारण चिपक गया है। गाल पिचक का चेहरा त्रिभुजाकार हो गया है। लाखों स्त्रियाँ साड़ी के नीचे पहनने के लिए ब्लाउज़ नहीं जुटा पाती हैं और एक फटी पुरानी साड़ी से ही किसी तरह बदन को ढक लेती हैं। एक रूपये की crocin की गोली न ख़रीद पाने के कारन हजारों बच्चे बुख़ार जैसी साधारण बीमारियों से मर जाते हैं। ये मक्कार और बिके हुए लोग क्या समझेंगे बंगाल के लोग अपने भाग्य के साथ किस तरह लड़ रहे हैं। यदि इस बार फिर तृणमूल की सरकार बन गयी तो संभव है आने वाले 10-15 वर्षों में बंगाल भारत का हिस्सा न रहे। देश के बाकी लोग तो केवल एक वर्ष से महामारी झेल रहे हैं। लेकिन बंगाल की ग़रीब जनता 44 वर्षों से वामपंथ की ऐसी महामारी झेल रही है जिससे वो न तो मर रहे हैं और न ही जी पा रहे हैं। इसलिए मोदी जो कर रहे हैं, बिलकुल ठीक कर रहे हैं।

इसलिए देशभक्त भाइयों-बहनों, मक्कारों के सभी कुतर्कों का भरपूर ज़वाब दें। आप सही हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि आपका नेता ईमानदार है। इसलिए आपको किसी से दबने की आवश्यकता नहीं।

जय हिन्द। जय भारत।

–महेश ‘भारतीय’
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दिल्ली चुनाव के नतीजों के मायने

कल दिल्ली के नतीजे देखकर मुझे जितना दुःख हुआ उतना पिछले वर्ष 3 बड़े राज्यों (राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़) में भाजपा की हार देखकर भी नहीं हुआ था। क्योंकि इस समय देश एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहाँ देश को खंड-खंड करने का सपना देखने वाले लोग अपने पूरे उफ़ान पर हैं। ये वो समय था जब दिल्ली वाले उन देशद्रोहियों को एक अच्छा सन्देश दे सकते थे कि हम 800 साल पहले पृथ्वीराज चौहान द्वारा की गयी गलती को फिर नहीं दोहरायेंगे। लेकिन अफ़सोस, दिल्ली के लोग इसमें असफ़ल रहे।

आज भले ही केजरीवाल एक अच्छा आदमी बनने का ढोंग करे, लेकिन पिछले 5 सालों में ऐसी कोई गाली नहीं बची, जो उसने देश के प्रधानमंत्री को नहीं दी हो। वो भी केवल राजनैतिक शत्रुता के कारण। दिल्ली वाले उन सब बातों को भूल गए।

यदि केजरीवाल जनता का बेटा है तो क्या मोदी बेटा नहीं है? उसी जनता ने मोदी को केजरीवाल से वरिष्ठ पद पर बिठाया है। इसलिए अगर जनता का एक बेटा अपने वरिष्ठ के साथ असभ्य व्यवहार करे, तो क्या जनता का ये कर्तव्य नहीं कि अपने बिगड़ैल बेटे को अच्छा सा सबक सिखाये?

लोग कह रहे हैं कि केजरीवाल अपने काम के नाम पर जीते हैं। काम मतलब? सरकारी स्कूलों को अच्छा कर दिया, यहीं न? तो फिर क्या कारण है कि शिक्षा मंत्री सिसोदिया अंतिम क्षणों में बड़ी मुश्किल से मात्र 2800 वोटों से जीते हैं जबकि अमानतुल्ला खान 72000 वोटों से और शोएब इक़बाल 50000 वोटों से जीत गए?

मतलब साफ़ है कि मुस्लिम वोटरों के लिए मज़हब पहले है, देश जाये भाड़ में। और आपके लिए? फ़ोकट के दो-चार हजार मिल जायें, देश का क्या है, पहले भी चल रहा था, आगे भी चलता रहेगा।

चलो मान भी लेता हूँ केजरीवाल ने अच्छा काम किया। कुछ अच्छे काम तो अंग्रेजों ने भी किये थे। उनके बनाये हुए हजारों पुल, कारखाने, रेल लाइनें आज तक चल रहे हैं। तो फिर अंग्रेजों को भगाने की क्या जरुरत थी? अरे भई स्वाभिमान, राष्ट्रवाद और अपनी सांस्कृतिक विरासत का भी कोई मोल होता है कि नहीं? या किसी ने थोड़ा बहुत अच्छा काम कर दिया तो आप उसे गद्दी सौंप देंगे? फिर चाहे उसने 5 साल अपने बयानों और कारनामों से दुश्मन देश की भरपूर मदद ही क्यों न की हो।

मोदी जैसा नेता जिसने देश की सेवा के लिए अपना घर परिवार तक छोड़ दिया उसके लिए मेरा दिल आज ये पंक्तियाँ गुनगुना रहा है, “झल्ले तू सबका, झल्ले तेरा कोई नहीं”

लेकिन याद रखना, मैं भाजपा हूँ। मैं हार नहीं मानूंगा। मैं तब निराश नहीं हुआ, जब मेरी लोकसभा में मात्र 2 सीटें आयीं थीं तो आज निराश होने का प्रश्न ही नहीं। मैं पहले भी उठा हूँ, आगे भी उठूँगा। 2014 में लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत और लगातार 4 राज्यों (हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड और कश्मीर) में सरकार बनाने के बाद 2015 में लगातार 2 झटके दिल्ली और बिहार में लगे थे। तब भी लोग कहने लगे थे कि अब मोदी लहर ख़त्म हो गयी है। परन्तु उसके बाद हमने लगातार 10 राज्य जीते थे और पूरे भारत को भगवा रंग से पाट दिया था।

हम अब भी टूटे नहीं हैं, न टूटेंगे। और न ही अपनी विचारधारा को छोड़ेंगे। कल संबित पात्रा ने भी यही कहा- “हम सत्ता के लिए राजनीति में नहीं आये हैं। हम जिस उद्देश्य से आये हैं, वो पूरा करके रहेंगे। भले ही एक भी सीट न रहे, भले ही मर जायें, भले ही मिट जायें, लेकिन अपनी मूल विचारधारा को नहीं छोड़ेंगे।”

बस जरुरत ये है कि राष्ट्रवादी इस हार को भूलकर अभी से अगले लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा दें।

महेश ‘भारतीय’

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नागरिकता कानून का विरोध या कुछ और?

क्या आप जानते हैं देश में हर तरफ़ दंगा फ़साद क्यों किया जा रहा है?
जी नहीं, नागरिकता कानून तो सिर्फ़ एक बहाना है।

लोकसभा चुनाव के बाद अब तक तीन ऐसे फैसले हुए हैं, जिनसे इस देश के मुसलमान प्रभावित हुए हैं- तीन तलाक, धारा 370 और राम-मंदिर। लेकिन तीनों ही बार एक भी व्यक्ति सड़क पर नहीं उतरा।
तो फिर अब क्या हो गया जो इतना कोहराम मचाया जा रहा है जबकि नागरिकता कानून से तो इस देश के मुसलमान प्रभावित भी नहीं हो रहे?

दरअसल असली निशाना है- सत्ता। मोदी विरोधी सत्ता के लिए किस कदर छटपटा रहे हैं, आप अनुमान नहीं लगा सकते।

आप भाजपा से निराश या असहमत हो सकते हैं लेकिन ये बात तो आपको माननी ही पड़ेगी कि जब-जब भाजपा थोड़ी सी कमजोर होती है, ये सब गुंडागर्दी शुरू हो जाती है। जब-जब भाजपा किसी चुनाव में बहुमत से दूर रह जाती है, विरोधियों को लगने लगता है कि अब दिल्ली दूर नहीं। इसलिए वे अपनी गुंडागर्दी के बल पर देश का जनमत अपनी ओर मोड़ने के लिए सड़कों पर उतर जाते हैं।

लोकसभा चुनाव में जबरदस्त हार के बाद सभी विरोधी निराश होकर घरों में दुबक चुके थे। इसलिए जब उपरोक्त 3 महत्वपूर्ण फैसले हुए, तब शांति बनी रही। लेकिन जैसे ही महाराष्ट्र में UPA की सरकार बनी, गद्दारों के हौसले फिर बढ़ गए। अगर झारखण्ड में इस माह और दिल्ली में फरवरी में होने वाले चुनाव में भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही, तो फिर कुछ समय तक मोदी जी को काम करने में कोई कठिनाई नहीं आएगी।

अतः देशवासियों को चाहिए कि चुनाव चाहे कहीं भी हो, वोट सिर्फ़ भाजपा को। यदि नहीं, तो जो हो रहा है, उसको सहने की आदत डाल लीजिये। जो बसें उपद्रवी जला रहे हैं, उनमें आपका कोई सगा-सम्बन्धी न हो, मैं ऐसी कामना करता हूँ।

–महेश ‘भारतीय’

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‘तटस्थ मीडिया’ की हकीकत

ये लो जी, दुनिया में नयी पीढ़ी के शीर्ष दस नेताओं की 2017 की सूची में दूसरा स्थान गुरमेहर कौर को। और सूची बनायी है दुनिया की ‘प्रतिष्ठित’ टाइम मैगज़ीन ने। याद आया कौन गुरमेहर? थोड़ा जोर डालिये दिमाग पर। दिल्ली विश्वविद्यालय की वही छात्रा जिसने इस वर्ष मार्च में सुर्खियाँ बटोरने के लिए युद्ध में अपने फौजी पिता की मौत की जिम्मेदारी से पाकिस्तान को बरी करते हुए उसे ‘शाँतिप्रिय देश’ घोषित कर दिया था।

आप भी सोच रहे होंगे कि जिस लड़की का नाम तक किसी को याद नहीं है, वो दुनिया की ‘दूसरी शीर्ष नेता’ कैसे? यही है इन ‘प्रतिष्ठित पत्रिकाओं’ की असलियत। इन्हें जहां से हड्डी मिल जाये, उसी का पिछवाड़ा चाटती हैं। संभव है कि गत वर्षों में हार्दिक पटेल और कन्हैया कुमार ने भी इस सूची की शोभा बढ़ाई होगी। यही कारण है कि मोदी, भाजपा और संघ इन विदेशी पत्रिकाओं और NGOs की आँखों में चुभते हैं। आपको याद होगा इसी टाइम मैगज़ीन ने 2014 में मोदी को दुनिया भर में जनता के सबसे अधिक वोट मिलने के बावजूद शीर्ष दस नेताओं की सूची में नहीं रखा था।

अब मुझे तरस आता है उन अंग्रेजी पढ़े बेवकूफों पर जो ऐसी पत्रिकाओं को पढ़कर अपने दिमाग का गोबर करते हैं।

महेश बंसल ‘भारतीय’
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चुनाव आयुक्तों के ‘लाभ का पद’

जो लोग चुनाव आयोग द्वारा 20 ‘आप’ विधायकों की अर्ज़ी खारिज़ करने पर ख़ुशी मना रहे हैं, उन्हें आगे चलकर निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि चुनाव आयोग लोगों को बेवकूफ बनाने के अलावा और कुछ नहीं करने वाला। इन विधायकों के ढ़ाई वर्ष पहले ही पूर्ण हो चुके हैं। बाकि के ढाई वर्ष भी देखते-देखते निकल जायेंगे और चुनाव आयोग कोई निर्णय नहीं ले पायेगा।

इन 21 विधायकों के विरुद्ध ‘लाभ का पद’ मामले में जून 2015 में शिकायत दर्ज की गयी थी। दो वर्ष में तो आयोग यह तय कर पाया है कि इन विधायकों के विरुद्ध केस चलाया जायेगा।

वैसे भी चुनाव आयोग की नाकामियों का लम्बा इतिहास रहा है। अभी कल ही आयोग ने मध्य प्रदेश के भाजपा विधायक की 2008 की सदस्यता इस आधार पर रद्द कर दी कि उन्होंने चुनाव से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी आयोग को नहीं दी थी। इस मामले में शिकायत 2009 में दर्ज की गयी थी। 8 वर्ष तक आयोग यह निर्णय भी नहीं कर पाया कि विधायक ने पूर्ण जानकारी दी थी या नहीं। इस बीच उनका कार्यकाल 2013 में समाप्त हो गया और वे 2013 में पुनः निर्वाचित होकर आ गए। मतलब 2008 के चुनाव की कथित गलती की सजा आयोग ने 2013 का चुनाव रद्द करके दी है। दूसरे शब्दों में अपनी नाकामी की सजा आयोग ने एक विधायक को दी है।

इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनावों में केजरीवाल, मायावती, अखिलेश, लालू और काँग्रेस ने चुनाव आयोग पर एक से एक भद्दे आरोप लगाये हैं। देखते हैं आयोग उनका संज्ञान कब लेता है।

महेश बंसल ‘भारतीय’
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हारो तो हारो, मगर इज़्ज़त मत उतारो

दो वर्ष पहले आयी शाहरुख़ ख़ान की फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ में मोहिनी (दीपिका पादुकोण) का एक मशहूर डायलॉग था, “हारो तो हारो, मगर इज़्ज़त मत उतारो”

लेकिन सपा, बसपा और काँग्रेस न केवल बुरी तरह हारे, अपितु अब अपनी इज़्ज़त भी उतरवा रहे हैं। पहले बहनजी ने अपनी शर्मनाक पराजय से मुँह छिपाने के लिए वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी का आरोप लगाया। उसके बाद तो सभी हारे हुए दलों को अपना काला मुँह छुपाने के लिए वोटिंग मशीनों का बहाना मिल गया। अखिलेश, लालू, हरीश रावत और कई अन्य बड़े कांग्रेसियों ने भी वोटिंग मशीनों में हेराफेरी का आरोप भाजपा पर मढ़ दिया। साल भर पहले जब इन्हीं वोटिंग मशीनों से बिहार में लालू जीता था, तो बड़ा अकड़ रहा था। आज हार गया, तो वोटिंग मशीनें गलत हो गयीं।

बहनजी को अब दो बार मार खाने के बाद ये समझ लेना चाहिये कि जनता को उसकी यही मूर्खतापूर्ण और बेबुनियाद बातें पसन्द नहीं हैं। ऊलजलूल बातें करके चुनाव जीतने के दिन अब बीत गए। जो सार्थक और सकारात्मक बातें करेगा, वही जनता का विश्वास हासिल करेगा।

जो अखिलेश चार दिन पहले तक घूम-घूम कर इतरा रहे थे कि यूपी की जनता बड़ी समझदार है, सब समझती है और अपना वोट सही पार्टी को देगी, वही आज मुहँ की खाने के बाद कह रहे हैं कि यूपी की जनता को ‘समझाकर नहीं, बहकाकर’ वोट लिए जा सकते हैं। थू।

जब दिल्ली और बिहार में भाजपा बुरी तरह हारी, तब तो सारे साँपनाथ-नागनाथ ‘सेकुलरिज्म’ के नाम पर इकट्ठे होकर जश्न मना रहे थे, “जनता ने सांप्रदायिक राजनीती को नकारा”. आज जब ‘सेक्युलर’ अपना पूरा जोर लगाकर भी पराजित हो गए, तो वही जनता मूर्ख हो गयी तथा वोटिंग मशीनों में हेराफेरी हो गयी। गज़ब है!

यूपी के नतीजे एग्जिट पोल्स के अनुमानों के अनुसार ही रहे हैं। सेक्युलरों का मतलब ये है कि जनता ने वोट तो सपा, बसपा और कांग्रेस को दिया था, लेकिन बाहर आकर न्यूज़ चैनल वालों को गलत बताया कि हमने भाजपा को वोट दिया है। क्या कहें इस हरामपंथी को? ऐसी घटिया बातें बिहार और दिल्ली में एग्जिट पोल्स के अनुमानों के विपरीत हारने के बावजूद भाजपा ने कभी नहीं की।

अब इन लोगों को समझना ही होगा कि जनता को बुड़बक बनाना पहले की तरह आसान नहीं रहा है। आज हारोगे, तो हो सकता है कल जीत भी जाओ। लेकिन अगर इज़्ज़त बेच दोगे, तो कभी नहीं उबर पाओगे।

जय हिन्द। जय भारत। वंदे मातरम।
महेश बंसल ‘भारतीय’

देशविरोधी ‘सेकुलरिज्म’ का ढहता किला

अभी-अभी समाचार देखा कि मोदी से भयभीत सेक्युलर नेताओं की शह पर एक मौलाना लखनऊ मुठभेड़ में मारे गये आतंकवादी सैफुल्लाह के पिता को सरकार के विरुद्ध भड़काने के लिए उनके घर पहुँचा। वहाँ जाकर मौलाना ने पूरे मोहल्ले के सामने इस घटना को सरकार और सुरक्षाबलों की गुंडागर्दी बताकर इसकी ख़िलाफ़त करने के लिये सैफुल्लाह के पिता सरताज को उकसाया। इससे पहले सरताज ने देशभक्ति का परिचय देते हुये अपने आतंकी बेटे का शव लेने से इनकार कर दिया था। इस घटना के बाद एक और गिरफ़्तार आतंकी के बेटे ने अपने पिता से कोई सम्बन्ध होने से इनकार कर दिया। मुस्लिमों के इस बदलते व्यवहार से पूरे सेक्युलर खेमे में भूकंप आ गया। सभी ‘सेक्युलरों’ को अपना राजनैतिक भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा। इसलिए इन मौलाना साहब को तैयार करके राष्ट्रद्रोह की फसल बोने सैफुल्लाह के घर भेजा गया।

कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये अगर इस वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले ‘असहिष्णुता पार्ट-3’ के दौरान नया नारा सुनने को मिले, “तुम कितने सैफुल्लाह मारोगे, हर घर से सैफुल्लाह निकलेगा”. नारा तो ये आपको अभी सुनने को मिल जाता अगर यूपी चुनाव का एकाध चरण बाकी रहते सैफुल्लाह मारा जाता।

जय हिन्द। जय भारत। वंदे मातरम।
महेश बंसल ‘भारतीय’